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________________ आदर्श-ज्ञान १५४ ओघनियुक्तिमें ही बतलाया है । उसको न पढ़ने से ही अपनी समु. दाय में न तो १४ उपकरणों का पूरा प्रमाण है और न प्रयोजन की व्यवस्था है, जिससे हर कोई मन चाहे उतने ही प्रमाण के उपकरण रख लेता है। पूज्यजी- क्या तुम ने ओघ नियुक्ति देखी है ? गयवर०-हाँ, तब ही तो मैं यह बात कह रहा हूँ। पूज्यजी-तुम ने ओघ नियुक्ति कहाँ पर देखी थी ? गयवर०-बोकानेर के बड़े उपासरे में थी, वहाँ से लाकर मैंने पढ़ी थी। पूज्यजी-किसकी आज्ञा से ? गयवर०-आत्मा की आज्ञा से । पज्यजी-इस बात के लिये तो तुमको प्रायश्चित लेना होगा ! गयवर०-पूज्यजी महाराज ! क्या सूत्र बाँचने का भी प्रायश्चित लेना पड़ता है ? पूज्यजी-हाँ, बिना गुरु-आज्ञा सूत्र नहीं पढ़ा जाता है । गयवर०-यह बात ३२ सूत्रों के लिये है या अन्य सूत्रों के लिये ; यदि ३२ सूत्रों के अलावा जो कोई भी अन्य सूत्र एवं ग्रन्थादि पढ़ते हैं, उनके लिये भी हो तो उन सब को प्रायश्चित लेना चाहिये, जैसा कि मुझे दिया जाता है। __ पूज्यजी महाराज जान गये कि गयवरचन्द को मुँह-पत्ती बाँधने से अरुचि होगई है । अतः इस विषय की अधिक चर्चा करना ठीक नहीं है । आपने कह दिया कि जब तुम्हारे गुरु मोड़ीरामजी मिलेंगे, तब इस बात का निर्णय किया जायगा।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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