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सोजत-चतुर्मास और आज्ञा-पत्र की प्राप्ति
तब केवलचंदजी-समझ गये कि गयवरचंद अपने हाथ लगने वाला नहीं है इसने तो बिलकुल निराश कर दिया। स्वामीजी ने कहा ठीक है जब कभी तेरी इच्छा हो, तब ही तेरे लिए द्वार खुला है।
आप ब्यावर से पीपाड़ गये, वहाँ कर्मचन्दजी महाराज बिराजते थे। उनसे याचना कर एक राजमलजी नामक साधु को साथ में लेकर बीसलपुर गये और मातुश्री की जबानी आज्ञा लेकर वहीं आहार पानी शामिल कर लिया। फिर वापस पीपाड़ बाये । कर्मचन्दजी महाराज के साथ आहार पानी,बन्दना व्यवहार करके वापिस पूज्यजी की सेवा में जानेके लिए विहार कर दिया।
जब श्राप पर पधारे तो एक श्रावक द्वारा पता मिला कि मन्नालालजी के पास रहने के कारण पूज्यजी महाराज आप पर सख्त नाराज हैं और अब श्राप को पूज्यजी महाराज अपना शिष्य न करके किसी साधारण साधु का शिष्य बना देना चाहते हैं। यह सुनकर तो आप और भी विचार में पड़ गये फिर भी आपने ब्यावर जाने के लिए बिहार कर दिया।
ब्यावर से करीब तीन मील पर जालिया नामक एक छोटा सा प्राम है । वहाँ जाकर रात्रि को ठहर गये और एक पत्र भंडारी जी के नाम पर लिखा कि मेरी श्राज्ञा हो गई है, अब मैं इस शर्त पर पूज्यजी महाराज के पास थाने को तैयार हूँ जैसे आपके वचनानुसार पूज्यजी मेरे को अपना शिष्य बनाले यदि पूज्यजी महाराज ने किसी को अपना शिष्य न करने की प्रतिज्ञा करली हो, तो मेरी इच्छा के माफिक शिष्य बनावें हाँ मैं किसी का भी शिष्य बनूँ पर पूज्यजी महाराज का तो सदैव दास बनकर उनके चरणों में ही