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आदर्श-ज्ञान
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माया, कपटाई, छल, प्रपंच, और धूर्त-विद्या से अज्ञात था, पर अब मालूम हुआ है कि संसार में जितना जाल फैला है, उसका जन्म तो आप लोगों के द्वारा ही हुआ है। ___ केवल-ठीक है गयवर, हमारे जैसे साधु तुमको पसंद नहीं हुए, किन्तु बड़ों के काम ही बड़े होते हैं, और अब तुमको यह मालूम भी हो गया है । पर अब क्या करना है, यदि तुम हमारे पास रहना चाहो तो अब भी समय है, वरना पूज्यजी ढूढाड़े हैं, उनके तीन गांठे तो स्वभाविक ही हैं, और कितनी होगी वह फिर मालूम होंगी, पहिले भी तुमने मेरा कहना नहीं माना, जिसका तो फल भोग ही रहे हो, अब भी समझ जाओ, तो अच्छा है।
गयवर०- स्वामीजी आपका कहना ठीक है, किन्तु मैं मेरे मुँह से पूज्यजी का शिष्य बन चुका हूँ, और मेरा खानदान ऐसा नहीं है कि मैं एक को छोड़ दूसरे का नाम धराऊँ ।
केवल०-देख गयवर,वहाँ तुम्हारे दिल को समाधि नहीं रहेगी इस बात का पहिले विचार कर लेना। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तू खुद विचारवान है।
गयवर०-यदि मेरे में संयम का गुण होगा तो मैं जहाँ रहूँ वहाँ ही समाधि रहेगी, किन्तु मैंने जो पहिले से निश्चय किया है, उसमें तो परिवर्तन करने की बिलकुल इच्छा नहीं है।
केवल-अभी पूज्यजी की प्रकृति का तुम्हें पूर्ण अनुभव नहीं हुआ है। ___गयवर०-पूज्यजी की कैसी ही प्रकृति क्यों न हो, और वे मुझे कितना ही कसौटी पर क्यों ना जाँचे, किन्तु मैं अपने निश्चय से कभी विचलित न होऊँगा।