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________________ ३१७ गुरु शिष्य के वार्तालाप तथा जो संवेगी आचार्यों और मुनिवरों से पत्रों द्वारा प्रश्न पूछे थे उनको नकलें और उत्तर में आये हुए पत्र दिखाये और ए+ पी जैन लश्कर वालों के लेखों के उत्तर में शास्त्रों के आधार पर तैयार किया हुआ 'गयवर-विलास' जो प्रतिमा छत्तीसी का ही एक प्रकार से विस्तृत रूप था, उन्होंने गुरु महाराज की सेवा में हाजिर किया। इनको देख कर योगीराज बहुत ही प्रसन्न हुए । वार्तालाप के पश्चात् मुनिश्री ने विनय की कि गुरु महाराज ! अब मुँहपत्ती बँधी रखने का मुझे कोई कारण नहीं दीखता है, क्योंकि 'प्रतिमा छत्तीसी' छप जाने से तथा दोनों तरफ के वाद-विवाद के लेख निकल जाने से अब इसकी आवश्यकता ही नहीं रह गडे है । अतएव अच्छा हो कि आप कोई अच्छा दिन देख कर मुझे जो क्रिया करवानी हो वह करवा कर आर अपना शिष्य बना लें। गुरु महाराज ने फरमाया कि, हाँ ! अब मुंहपत्ती बंधी रखनी तो मैं भी योग्य नहीं समझता । यह डोग आज ही दूर कर दिया जावे । और दीक्षा के लिए तो मौन एकादशी के पहिला कोई अच्छा दिन मालूम नहीं होता है, और शिष्य के लिये तो यह बात है कि मैं शिष्य बनाने की अपेक्षा अपना धर्ममित्र बनाना अधिक पसंद करता हूँ, तथा मजाक ही मज़ाक में वे कहने लगे कि मैंने तो अपना गच्छ ही दोस्तानागच्छ बना रखा है । कोई भी गच्छ का साधु क्यों न हो, मित्र बन कर जितने दिन इच्छा हो मेरे पास रहे और जब मन चाहे तब ही चल दे। संयम पालना यह वाड़ाबंदी का काम नहीं, किंतु आत्मार्थी मुमु. क्षुओं को आत्मा की साक्षी से ही पालन करना होता है। मुख्यतः मेरी तो यही सलाह है कि तुम गच्छ मत के बंधन में न
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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