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________________ गुरु शिष्य के वार्तालाप ३१९ ही डाली । उन्होंने शासन का एक अङ्ग काटा है, बाद में ढूँढ़ियों ने उसकी वृद्धि कर दूसरा अंग भी काट डाला है । योगीराज ने कहा कि ऐसी तो गच्छ गच्छान्तर की कई चर्चाएँ हैं, यदि तुम इसमें उतर जाओगे तो तुम्हारी उम्र इसमें ही समाप्त हो जावेगी । अतः इन सब बातों को छोड़ तुमको जो कुछ करना है, उसीका निश्चय कर डालो | मुनि०- मैं तो आपकी शरण में आया हूँ, जो मार्ग आप बतलावें मैं स्वीकार करने को तैयार हूँ । C योगीराज - मेरी तो राय है कि तुम ढूँढियों में से आये हो, तुमको पुनः दीक्षा तो लेनी ही पड़ेगी, और मैं दीक्षा देने को भी तैयार हूँ, अतः तुम दीक्षा लेकर तुम्हारा जो खास गच्छ है उसका ही उद्धार करो । मुनि०- गुरु महाराज ! मेरा खास गच्छ कौनसा है, जिसका अभी तक मुझे पता ही नहीं है ? योगी० - क्या तुम अपने मुख्य गच्छ को नहीं जानते ? मुनि - नहीं, कृपा कर आप बतलावें । ० योगी० - तुम वैद्य मेहता हो । तुम्हारे पूर्वजों को इसी स्थान पर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने जैन बनाया था और इसी नगर के नाम से श्राचार्य रत्नप्रभसूरि के गच्छ का नाम उपकेश गच्छ कहलाया है, अतः आपका गच्छ उपकेश गच्छ है 1 मुनि 10 – क्या इस गच्छ में कोई साधु है ? --- योगी :- अभी कोई साधु नहीं है, हाँ यतिवर्ग अवश्य है । 31 मुनि-तब मैं किसके पास दीक्षा ले सकता हूँ ? योगी ० - दीक्षा मैं दूंगा ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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