________________
आदर्श-ज्ञान
२१८ नगरी में स्वामि शोभालालजी थे, तथा पूज्यजी का खयाल था कि यदि ये दोनों मिल गये, तो और उत्पात न मचा देंवेंगे; अतः इनको मिलने नहीं देना ही लाभ कारक है। किन्तु गयवरचंदजी इतने भोले कब थे। जो वे हाथ में आये हुए अवसर को जाने देते। उन्होंने मगनजी को कहा-खैर चलो इधर हुकमीचन्दजी महाराज के दर्शन ही हो जायेंगे।
इस प्रकार वहाँ से चलकर वे नगरी पहुँचे । वहाँ वयोवृद्ध हुक्मीचंदजो महाराज के दर्शन कर शोभालालजी से मिले । आपने उन्हें रतलाम से लगाकार पूज्यजी के पास से बिहार किया तब तक का सब हाल सुना दिया और कहा कि अब क्या करना है ?
शोभा०-कुछ भी हो, अपने को उत्सूत्र को कदापि नहीं बोलना चाहिये ?
गयवर०-परन्तु कभी पूज्यजी समुदाय से अलग कर देवेंगे तो क्या करोगे ?
शोभा०-भले ही करदें, पर तुमतो हमारे साथ हो न ?
गयवर०-मैं तो आपके साथ हूँ, पर अपना निर्वाह कैसे होगा ?
शोभा०-इसका तो पहिले विचार कर लेना चाहिये । ____ गयवर०-विचार क्या करना है; स्थानकवासी समुदाय में से आत्मारामजी जैसे अनेक विद्वान् एवं आत्मार्थी साधु उत्सूत्र से बचने के लिए संवेगी साधु बन गये है, अपने को भी उसी मार्ग का अनुकरण करना होगा।
शोभा०-परन्तु अभी तक अपनी तो किसी संवेगी साधु से