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________________ २१९ नगरी में शो० मिलाप जान-पहिचान तक भी नहीं है, और सुना जाता है कि संवेगी होने के पूर्व पुनः दीक्षा लेनी पड़ती है, तथा वहाँ का प्रतिक्रमणभी बहुत बड़ा है, देव वन्दनादि कई प्रकार की क्रियायें हैं, वे सब फिर से सीखनी पड़ेंगी। ____ गयवर०-व्यापारीलोग जिस वस्तु की जरूरत देखते हैं, उसे मुलक में जहाँ भी मिलती हो, वहाँ से ही मँगा सकते हैं, अतः अपने को भी यदि किसी साधु की जरूरत होगी तो वह मिल जायगा और क्रिया के लिए ऐसी कौन सी बात है । जिन्होंने हजारों श्लोक और सैकड़ों थोकडे कण्ठस्थ कर लिए, उनके लिए क्रियाकाण्ड कोई बड़ी बात नहीं है । - अब रही पुनः दीक्षा की बात । इसके लिए जैसे पार्श्वनाथ के साधु महावीर के शासन में आये, तो उनको बिना अतिचार पुनः दीक्षा लेनी पड़ी। अतः यदि संवेगियों के नियमानुसार अपने को भी पुनः दीक्षा लेनी पड़े, तो इसमें क्या नुकसान है। आत्मकल्याण के लिए यदि किसी प्रकार का कार्य करना पड़े तो हम खुशी से करने को तैयार हैं। शोभा०-किन्तु इस बात पर पक्की पाबन्दी रखनी चाहिए। गयवर०-मेरी तो पाबन्दी ही है, श्राप डर कर हाँ में हाँ मिला देते हो ! अतएव आप अपने दिल में निश्चय करलें कि किसी भी हालत में उत्सूत्र नहीं बोलेंगे, तथा इस बात का श्राप हमको बचन दिलावें। . शोभा०-लो, मैं बचन देता हूँ कि मैं तुम्हारे साथ में हूँ। • गयवर०-देखो, रतलाम से नगरी नजदीक है; अतः सबसे पहिले पूज्यजी आपको ही बुलावेंगे । वे आपको अपनावेंगे; धम
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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