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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
५८८ हमको तो आपने आज पर्यन्त एक पाई के खर्चे का काम भी नहीं बताया है, इनके पास एक पण्डित रहता है दिन भर पढ़ाई का ही काम करता है, मालूम होता है कि मारवाड़ी साधु अच्छा विद्वान् है। इतने पर भी हमारे तीर्थ की पेढ़ि के जैन त्रिस्टियों का हृदय रहीम नहीं हुआ कि वे चतुर्मास रहने वाले साधु की कुछ सार सम्भाल करें, इसका कारण शायद यह हो कि गुजराती लोग धर्मात्मा नहीं किन्तु दृष्टिरागी हुआ करते हैं, अपरिचित साधु को वे साधु तक भी नहीं समझते हैं।
जब पर्युषण के दिन नजदीक आने लगे तो जघड़िया के आस-पास के छोटे २ ग्रामों के मारवाड़ी लोगों में जघड़िये आकर मुनिश्री को अर्ज को कि हमारे ग्रामों में श्रावकों के घर अल्प होने के कारण हमको पर्युषणों के व्याख्यान सुनने का लाभ नहीं मिलता है, इस वर्ष श्राप का चतुर्मास इस तीर्थ पा हो गया है, अतः हम लोगों की इच्छा है कि हम सब यहाँ श्राकर पर्वाराधना कर श्री कल्पसूत्रजीका व्याख्यान सुनें ? इस पर मुनिश्री ने फरमाया कि हम लोग तो इसी काम के लिए हैं, आप खुशी से यहाँ श्राकर पर्वाराधना कर सकते हैं । बस, फिर तो था ही क्या ? उन लोगों ने आसपास के तमाम प्रामों में पत्रिकाएं छपा कर भेज दी । बस पर्युषणों के पहिले दिन में ही करीब २५० नर-नारियों ने आकर दूसरे दिन व्याख्यान प्रारम्भ करवा दिया। बाद में तो श्रावक लोग हमेशा आते ही रहे, व्याख्यान में हमेशा दो २ चार २ प्रभावना, हमेशा स्वामी-वात्सल्य, तथा पुस्त्रकजी का वरघोड़ा बड़े ही ठाठ से निकला, सुरत से स्वप्ने पालना मंगवाया, भगवान महावीर के जन्मदिन तो सुरत वगैरह के लग भग ५०० श्रावक