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निर्वृर्ति स्थान का आनन्द |
हम लोगों पर पूर्ण कृपा कर मुनिश्री ने यहाँ चतुर्मास कर दिया है, 'दूसरे पण्डितजी भी अच्छे योग्य उपयोग वाले थे श्रावकों की ओर से द्रव्य की छूट थी । फिर भी मुनिश्री के एक दिन तपस्य और एक दिन तीन घरों से या आए हुए यात्रार्थ लोगों से भिक्षा लेते थे कभी २ छट अठमोदि तप भी किया करते थे पर एकान्तरतप तो हमेशा के लिये चलता ही था ।
पाठक ! इस बात को तो आप भली भांति समझ गये होगे कि मुनिश्री को एकान्त में रह कर अध्यात्म एवं तात्विक विषय में रमणता एवं ध्यान करने की कैसी अभिरुचि थी; यही कारण है कि आप किसी गच्छ समुदाय में न मिल कर अकेले ही रहे और यहाँ अकेले चतुर्मास करने का भी यही कारण था । अत: आप निर्वृति के साथ जघड़िया तीर्थ पर चतुर्मास कर दिन में ज्ञानाभ्यास और रात्रि में खूब ध्यान किया करते थे । जिस प्रकार से मुनिश्री का ज्ञानाभ्यास चलता था, वैसे ही पुस्तकों की छपाई का काम भी अच्छी तरह से चलता था, केवल एक प्रेस में ही नहीं किन्तु दो प्रेस में पुस्तकें छप रहीं थीं । मुनिश्री के नाम की डाक मुनीमजी की पेढ़ी पर आती थी, तथा वह ऊपर आकर मुनिश्री को दे जाता था । किन्तु हमेशा इतनी डाक और उसमें भी प्रफों के बण्डल के बण्डल आते जाते देख मुनीमजी विचार में पड़ गये । जब कभी त्रिस्टी ल ग आते थे और पूछते थे कि यहाँ जिस साधु ने चतुर्मास किया है वह तुम्हारे से खर्च ग़ैरह कुछ मांगता तो नहीं है न ? मुनीन कहता था कि न जाने यह अकेला साधु क्या करता है, इनके यहाँ हमेशा इतनी डाक श्राती जाती है उसका खर्चा भी न मालूम कहां से श्राता है ?
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