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________________ २६५ लुनकरण जी की भेट - मुनिश्री ग्राम में इधर-उधर घूमते रहे, परन्तु किसी ने भी आप से आकर नहीं पूछा कि आपको किस वस्तु की आवश्यकता है । परिणाम स्वरूप आपको न तो भोजन जल मिला और न ठहरने के लिये मकान आदि का ही प्रबन्ध हो सका। फिर भो मुनिश्री हताश एवं निरुत्साह नहीं हुए । प्राम बाहर एक टूटी. फूटो छत्री थी वहीं जाकर आपने विश्राम किया। ___लूनकरणजी लोढ़ा मूर्तिपूजक समुदाय में एक मुख्य थे । जब आपको इस बात का पता चला कि इस प्रकार एक मुनिश्री पधारे हैं और प्राम बाहर एक जीर्ण और खण्डित छत्री में विराजे हुए हैं तो आप मुनिश्रीजी के पास पहुँचे और पूछाः लूनकरणजी-आपका शुभ नाम मैं जान सकता हूँ? मुनिश्री-मेरा नाम गयवरचन्द है। लून०-श्राप अकेले कैसे हैं ? और यहां कैसे निवास किया ? मुनिश्री-जोव मात्र अकेला है, और यहां ठहरने के लिये तो साधुओं को जहाँ स्थान मिलजाय वहीं ठहर जाते हैं। ___ मुनिश्री के ऐसे विनम्र भद्रतापूर्ण उत्तर को सुन कर लोढ़ानी समझ गये कि जिनके लिये मैंने जोधपुर में सुना था ये वे ही मुनिश्री हैं । तदन्तर लूनकरणजी ने पूछा कि क्या आपने . शाबों का भी अध्ययन किया है ? मुनिश्री ने उत्तर दिया-यथाक्षयोपशम । लनकरणजी ने मुनिश्री से निवेदन किया कि आप नाम में पधारें। आपके लिये मकानादि सर्व प्रकार का प्रबन्ध हो जायगा। मुनिश्री ने कहा- नहीं भाई, आप व्यथ क्यों कष्ट करते हो,
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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