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भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
२६४ ___ इससे मुनिश्री के मन में संतोष हो गया और श्रोसियाँ जाने के लिये आपका उत्साह बढ़ गया। महामन्दिर में मुनिश्री के हमेशा व्याख्यान होते थे । कितने ही लोग जोधपुर से भी आपके व्याख्यानों को सुनने के लिये पाया करते थे । वे लोग पुनः समु. दाय में रहने के लिये भो प्रयत्न करते रहते थे परन्तु मुनिश्री तो जैसे सपं कंचूक को त्याग कर पुनः उसके सामने नहीं देखते वैसे ध्यान तक भी नहीं दिया। अलावा इसके जो लोग मुनिश्री के. समीप आते उन्हें सूत्रों के पाठ बतला कर कहा करते थे कि जैनसिद्धान्तों में मूर्तिपूजा के पाठ तो स्थान स्थान पर हैं । हम इस बात पर कहां तक पर्दा डालते रहें । और एक बात यह भी विचारणीय है कि जनता में जब यह उपदेश दिया जाता है कि एक अक्षर ही नहीं पर एक मात्रा तक न्यूनाधिक कहने मात्र से अनन्त संसार को वृद्धि होती है तो फिर मूल सूत्रों के पाठ एवं अर्थ को बिल्कुल ही निकाल देना एवं छिपा कर रखना कितना अन्याय है ? ... मुनिश्री ने कुछ समय तक महामन्दिर में निवास किया इसके उपरान्त विहार करते करते तीवरी ग्राम में पधारे। इस प्राम में गबूजी आदि तीन साधु वर्तमान थे। जब उन्होंने यह सुना कि गयवरचन्दजी यहां आये हुए हैं तो उन्होंने अपने भक्त लोगों से कहा कि गयवरचन्दजी भ्रष्ट हो गये हैं अतः उन्हें भोजन-जल, मकान इत्यादि किसी प्रकार को भी सहायता और आश्रय न दिया जाय । इतना ही नहीं पर उन्होने अपने भक्तों को यहां तक कह दिया कि उनके पास जाने तक में पाप लग जाता है। फिर स्वामीजी ने तो यहाँ तक ओर्डर दे दिया कि इनके पास सूत्र वगैरह है वह भी छीन लेना चाहिये ।
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