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आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
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मुके स्थान आदि को चिंता नहीं है, मैं तो श्रोसियाँ जा रहा था, मार्ग में ग्राम आ गया अतः मैंने यहां विश्राम ले लिया है। ___लूनकरणजी-खैर, आप ओसियां पधारें लेकिन अभी एक दो दिन तो इसी ग्राम में विराजें और दो एक व्याख्यान भी दें ताकि यहाँ के लोगों का आपकी विद्वता और पाण्डित्य का परिचय मिले अन्यथा उन्हें आपके उपदेशों का ज्ञान-लाभ कैसे हागा और वे क्या जानेंगे कि हमारे ग्राम में अमुक साधु
आये थे। ___ मुनिश्री-लोढ़ाजी के आग्रह और निवेदन से ग्राम में पधारे
और एक मकान में निवास स्थान किया। तदन्तर मुनिश्री गौचरी जल लाये और आवश्यक कार्यों से निवृत्त हुए ही थे कि लनकरण जी लोढ़ा एक धर्म पुस्तक लेकर मुनिश्री के पास आये और मुनिश्री के सन्मुख निम्न लिखित गाथा रख कर अर्थ समझाने के लिये कहागाथा-"उमग्ग देसणा मग्ग नासणा, देव दब्य हरिण । हंसण मोह जिण मुणि चेहय, संघाइ पडाणियो॥५६॥
___'कर्म ग्रन्थ प्रथम, इस मूल गाथा को पढ़ कर मुनिश्री ने इस प्रकार अर्थ किया-"सद्मार्ग का लोप करना, उन्मार्ग का उपदेश देना, देव द्रव्य का हरण ( नाश ) करना, जिन, मुनि, चैत्य (मन्दिर) तथा चतुर्विध श्री संघ का प्रतनिक (बैरी) यानना एवं निंदा करना, इन पूर्वोक्त कारणों से जीव दर्शन मोहनीय कर्म का बन्ध करता है । 'लूनकरणजी इस अर्थ को सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और