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________________ ५८५ बीसलपुर वालों का फलौदी मरजी हो वैसा करें पर तुम दोनों की प्रकृतिः देखने से मुझे विश्वास नहीं है कि तुम इनको चार मास निर्वाह सकोगे। ... रूपसुंदरजी ने कहा-ठीक है रहने दो इसको। आपको मालूम हो जायगा कि मैं निर्वाह सकूँ हूँ या नहीं ? मुनि-अच्छा तुमारी मरजी। रूपसुंदरजी की प्रकृति जल्द थी, ज्ञान पढ़ने में बिल्कुल कम रुचि थी; अभी तक आप राइदेवसि प्रतिक्रमण ही नहीं कर पाये थे। पांच सात दिनों के बाद तो गुरु चेले के भी मड़ने लगी। मुनिश्री जब व्याख्यान देने को जाते तो वे पीछे से दोनों आपस में लड़ने लगजाते थे, फिर भी थोड़े बहुत दिन तोज्यों त्यों निकले। मुनिश्री को जब गुरु महाराज के वचन याद आये, तब आपने अपने किये हुए वचनों का भंग के लिए बड़ा भारी पश्चात्ताप किया कि मैंने बड़ी गल्ती की है कि गुरु महाराज के दिये हुए वचनों का अनादर कर दिया. यही कारण है कि मैं हर दम संकल्प विकल्प का घर बना रहता हूँ। ६० बीसलपुर में ग़लतफ़हमी का फैलाना - जब गयवर मुनिजी ढूंढ़ियों से संवेगो साधु ज्ञानसुंदरजी बन गये, और फलौदी में आपके यशः का डंका जोर से बजने लगा, तब कितने ही ढूंढिये साधु, आरजियों ने बीसलपुर में जाकर कह दिया कि गयवर मुनि तोभ्रष्ट हो गया, उसने साधुपना छोड़ दिया, इत्यादि बहुत कुछ निंदा की, उस समय गणेशमलजी दिसावर से आये हुए थे, उन्होंने कागज पत्र से पता लगाया कि आप फलौदी विराजते हैं तो अपनी भावज ( राजकुँआर) और सब भाईयों को
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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