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________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४१६ हूँ। आप अवश्य बिराजें, व मेरे योग्य सेवा हो वह कृपा कर फर• मायें, मैं हाजिर हूँ। मैं आप के पास आने को भी तैयार हूँ हमारे श्रावकों की हमको दक्षण्यता भी नहीं है किंतु आपके श्रावक क्लेश न कर बैठे। पूज्यजी धनराजजी से यह उत्तर सुन बहुत प्रसन्न हुये और श्रावकों को कह दिया कि अपनी क्रिया अपन करते हैं, उन की वे करते हैं; किसी की निंदा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि निंदा कमबन्ध का कारण है । यदि तुम गयवरचॅदजी को जान-बूझ कर छेड़ते हो तब ही वह करते हैं इसलिये मेरा कहना है कि तुम उनके लिये एक शब्द भी न निकालो। मूर्तिपूजक-स्थान० से कहा । लो आपके पूज्यजी आ गये हैं, अब शास्त्रार्थ क्यों नहीं करवाते हो ? । _____ स्थानकवासी-क्या हमारे पूज्यजी गयवरचंदजी महाराज जैसों के साथ शास्त्रार्थ करेंगे। मूर्ति-क्यों इसका क्या कारण है ? स्था०-गयवरचंद जी को तो हमारे पूज्यजी ने ही पढ़ाया है। मूर्तिः -तब तो और भी सुविधा है न ? स्था०-हमारे पूज्यजी ने २१ बार भगवती सूत्र बांचा है और ३२ सूत्र तो आपके कण्ठस्थ जैसे ही हैं, क्या घेवरमुनि हमारे पूज्यजी के सामने एक शब्द भी उच्चारण कर सकेगा ? मूर्ति०-आकर सब हाल मुनिश्री से कहा। मुनिश्री ने दूसरे ही दिन व्याख्यान में फ़रमाया कि यदि पज्य. जी महाराज अपने ३२ सूत्रों में से एक आंबिल का प्रत्याख्यान
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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