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________________ ३६३ खरतरगच्छ वालों की कोशीश की छटा ही निगली थी। जिस पर भी आपकी भाषा मीठो और मारवाड़ी फिर तो कहना ही क्या था । जब कभी लोग प्रभावना देते थे तो रेखचन्दजी गोलेछा जैसे बोल उठते थे कि भाई साहिब ! व्याख्यान में घोटाला क्यों करते हो; लड्डू और पताशों से तो महाराज साहब का व्याख्यान कई गुणा ज्यादा मीठा है; फिर भी करने वाले तो ऐसा लाभ कब जाने देते थे, वे कर ही गुजरते थे । ५४ खरतरगच्छवालों की कोशिश खरतरगच्छ में एक लक्ष्मीश्री नामक लगभग ८० वर्ष से अधिक आयु वालो साध्वीजी जो कि सब के ऊपर प्रवृतनी थी; उनका आचार व्यवहार इतना सरल एवं सुन्दर था कि कोई भी साध्वी तेल या दवाई रात्रि में रख लेतों तो वह कहती थी कि साध्वियां तुम यतनिये ( श्राचरपतित वेष धारनिये ) बन जाओगी अर्थात् सख्त उपालम्भ दिया करती थी । लक्ष्मीश्रीजो व्याख्यान हमेशा सुनती थीं, पर न जाने कि मुनिश्री का उनके साथ पूर्व भव में कोई निकट संबंध था कि मुनि श्री के ऊपर उनकी इतनी भक्ति एवं धर्मानुराग हो गया कि जब मुनिश्री कभी विहार का नाम लेते तो उनका आहार पानी छूट जाता और कर प्रार्थना करतीं कि मैं आपको मेरा गुरु समझती हूँ, और मेरी आयु अब अधिक नहीं है, आप यह चतुर्मासा यहां कर मेरा मृत्यु सुधार दें। आप सूत्र बांचते हो तो मुझे इतना आनन्द आता है कि जिसको मैं मेरे मुख द्वारा वर्णन नहीं कर सकती । यह धर्मराग केवल इकतरफा नहीं था किंतु मुनिश्री जब
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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