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मूर्तिपूजा के विषय सूत्रार्थ
सूत्र एवं टब्बार्थ में स्पष्ट लिखा है कि जिन प्रतिमा की पूजा करना हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण है । फिर उसको देवताओं का जीताचार कह कर निरर्थक क्यों बतला रहे हो । यहाँ मुझे अधिक कहने की आवश्यकता तो नहीं थी; पर आप इस प्रकार उत्सूत्र बोल रहे हैं, इसलिए इस पाठ के साथ सम्बन्ध रखने वाला पाठ मुझे बतलाना पड़ता है | लीजिये, इस पन्ने को भी श्राप पढ़ कर सुना दीजिये ।
तब लूनियाजी ने मुनिश्री के हाथ से पन्ना ले लिया । जनता उत्सुकता के साथ उसके पढ़े जाने की प्रतिक्षा करने लगी । लनिया जी की वाचना अच्छी थी वे पढ़ने लगे
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"तते गं से विजए देवे चउहिं सामाणिय साहम्सीहिं जाव णो िय बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहिय सिद्धिसंपरिवुड़े सव्विड्ढीए सब्बजुत्तीए जाव णिग्धोसाइयरवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवा-गच्छति २त्ता सिद्धायतरणं श्रणुष्पयाहिणीकरे माणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं श्रणुपविसित्ती अणुपविसिता जेणेव देवच्छंद ए जेणव उद्यागच्छति २ त्ता आलोए जिरणपड़िमाणं परणांमां करेति २ त्ता लोमहत्थगं गण्डति लोमहत्थगं गेरिहत्ता जिणपड़िमाओ लोमहत्थएणं पमज्जति २ ता सुरभिणा गंधोदएवं होति ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लूहेति २ ता सरसेणं गासीसचंदणेणं गाताणि अपलिं