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आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड
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अतः श्रापने साफ़ शब्दों में इन्कार कर दिया कि इस समय मैं उदयपुर नहीं आ सकता ।
आपके पास कई मुनियों एवं आचार्यों के यहाँ तक समाचार आये कि तुमको वापिस दीक्षा तो लेनी ही होगी, फिर रेल सवारी कर के हमारे पास आ जाओ तो क्या नुक़सान है । उत्तर में आपने कहला दिया कि जैसे आप मुझे रेल सवारी से बुलाना चाहते हैं, वैसे यदि आप ही रेल सवारी कर यहां पधार जावें तो क्या नुक़सान है ?
इसके उत्तर में जवाब आया कि हम तो साधु हैं रेल में बैठ कर कैसे आ सकते हैं ?
मुनि० - मैं कौनसा गृहस्थ हूँ जो मैं रेल में बैठ कर श्रा सकता हूँ ? इस पर वहां से कई आदमी आये और उन्होंने कहा आदमी - आपको तो पुनः दीक्षा लेनी पड़ेगी ।
मुनि०- यह तो एक समुदाय की मर्यादा है, किन्तु मैं यह नहीं समझ सकता कि मैंने जो नौ वर्ष साधुधर्म का पालन किया, वह संवेगी बनने से नष्ट हो जाता है । मेरी श्रद्धा का परिवर्तन हुआ है न कि दीक्षा काः
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इस पर वे लोग समझ गये कि यहाँ पोल का महकमा नहीं किंतु खराखरी का खेल है। ऐसे महात्मा को कोटिशः बन्दन है ।