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________________ ४६ दक्षिा की चर्चा तथा मुँहपत्ती का डोरा तीवरी का चातुर्मास सानद समाप्त हुआ। आपके विहार के समय जैन जैनेतर प्रायः सब लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए। विशेषता यह रही कि जो प्रदेशी समुदाय वाले पहिले आपके प्रतिकूल थे, वे लोग भी विहार के समय उपस्थित हो गये । इसका कारण यह था कि आपकी शांत प्रकृति तथा समयज्ञता एवं चातुर्य ने उन पर अच्छा प्रभाव डाल कर अपनी ओर आकर्षित कर लिया था । अतः वे कहने लगे, “कहना सुनना हुआ है तो क्षमा करें" यह कह कर मँगलिक सुन कर वे वापिस लौट गये। __ शेष लोगों का आगे चल कर मुनिश्री ने रवानगी का पुनः मँगलिक सुनाया । पर मँगलिक सुन कर वापिस जाने वाले लोगों के मुख उदास हो गये थे तथा नेत्रों से अश्रुधाग बहने लग गई थी। उन्होंने उन दिन शाम को रज के मारे शायद ही भोजन किया हो, क्योंकि धर्मानुराग ऐसा ही होता है । खैर लगभग ६० पुरुष तथा २० खियाँ तो आपके साथ ओसियाँ तीर्थ की यात्रा करने के लिए कटिबद्ध हो गये। . दूसरे दिन सब लोग ओसियाँ पहुँचे । बोर्डिंग के ४ लड़के व मुनिम वगैरह बाजा-गाजा लेकर सामने आये और मुनिश्री का अच्छा स्वागत किया । गुरू महाराज की इतनी कृपा थी कि आप स्वयं अपने विनयवान् शिष्य को लेने के लिए ग्राम के बाहर तक पधारे । जिस समय शिष्य ने गुरु महाराज के चरणों की रजको अपने
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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