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________________ ३१ दिशावर गमन न तो इस बात की मालूम थी न गयवरचंद से अभी तक मिलेही थे, फिर भी किसी जन्म के संचित अशुभ कर्म उदय होने से ऐसा व्यर्थ आक्षेप सहन करना पड़ा। स्वामि रत्नचंदजी ने इस बात को सुनकर वहां अन्न जल तक भी ग्रहण नहीं किया और विहार कर चले गये । जब गरचंद को इस बात की खबर मिली तो वे साधुजी के पीछे जाकर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे। साधुजी ने कहा कि गयत्ररचन्द मैंने तुम्हें धूनाड़ा में कहा था कि तुम दीक्षा का नाम न लेना, किन्तु तुमने मेरा कहना नहीं माना जिसका ही कटु फल है । किन्तु मैं तो अब भी कहता हूँ कि माता, पिता व स्त्री की राय - सहमत के बिना यदि तुम दीक्षा लेओगे तो फायदा नहीं उठाओगे, श्रतएव जरा धैर्य्य रख शान्ति से काम लेना इत्यादि, गुरु महाराज के यह वचन सुनते ही हमारे चरित्र नायकजी के दिल ने पल्टा खाया और चैत्र कृष्णा को दीक्षा लेने का जो शुभ मुहूत्त था वह घर छोड़ परदेश जाने के रूप में परिणित होगया । ८ - दिशावर गमन प्रदेशी साधु कैसे होशयार होते हैं, जब हमारे चरित्र नायक जी का समागम हुआ तो आपने वैराग्य की ओट में उनको चारों खन्ध करवा दिए, जैसे: Comaghug
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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