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आदर्श ज्ञान द्विताय खण्ड
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( क ) श्रद्धना से प्ररूपना भिन्न करता है, तो उसको माया का स्थान लगता है या नहीं ?
(ख ) यदि मायाचारी कहा जावे तो चारित्र का आराधी हो ता है या विरोधी ?
(ग) यदि विरोधी होता है तो वह प्रथम देवलोक से ऊपर जा सकता है या नहीं ?
(घ ) यदि चारित्र का विरोधी प्रथम देवलोक से ऊपर नहीं जा सके तो फिर अभव्य जीव उत्कृष्ट नौग्रीवेग जाता है वह कि स आधार से ?
(६) जब आप अभव्य के समकित चारित्रही नहीं मानते हो तो उसको मिथ्यादृष्टि कहना चाहिये, और मिथ्यादृष्टि वेषधारी की गति उस्कृष्ट पांचवें देवलोक से ऊपर नहीं है, फिर अभव्य नौप्रीवेग कैसे जा सकता है ?
(७) अभव्य जीव पूजित होने की आशा एवं पौदगलिक सुखों की अभिलाषा से ही दीक्षा लेता हो तो वह नौग्रीवेग तक कैसे जा सकता है ?
(८) यदि आप कहो कि क्रिया कष्ट के जोर से अभव्य नौग्रीवेग तक जाता है तो मिथ्यात्वी मास मास खामण का पारणा करने वाले पांचवा देवलोक से ऊपर क्यों नहीं जाता है ?
(९) यदि आप कहोगे कि अभव्य जीवों के व्यवहार ज्ञान दशन चारित्र होता है, जिससे नौग्रीवेग जाता है ?
(१०) यदि अभव्य के व्यवहार समकितादि हैं तो सात नय से कितनी नय की हैं ? यदि आप चार नय की समकित मानते हो तो ऋजुसूत्र नय परिणाम प्राही है, अतः अभव्य के