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सागगनन्द सूरि से प्रश्न
परिणामों की अपेक्षा ज्ञान दर्शन चारित्र है और उसके बल से हो वह नौग्रीवेग जाता है । इस हालत में आपका एकान्त कहना मिथ्यासिद्ध होगा कि भव्य केवल दूसरों की पूजा देख कर पूज नीय होने के लिए ही दीक्षा लेता है ?
( ११ ) आपने बंबई के व्याख्यान में फरमाया था कि अभ व्य जीव दूसरों को पूजा देख पूज्यनीय होने की अभिलाषा से दीक्षा लेता है, क्या यह कारण भव्यों के लिए नहीं बनता है ? यदि बनता है तो फिर एक अभव्य के लिए ही आपका आग्रह क्यों है ? हाँ कई भव्य इस प्रकार पूज्यनीय होने की आशा से दीक्षा लेते होंगे पर इस प्रकार कई भव्य भी दीक्षा लेते हैं ? किंतु मेरा प्रश्न तो भव्य जीव उत्कृष्ट नौमी वेग जाने वाले के लिए ही है ।
( १२ ) शास्त्रकारों की मान्यता और मेरी श्रद्धा है कि उत्कृष्ट भौग्रीवेग जाने वाले अभव्य के चारनय की समकित होती है और वह व्यवहार चारित्र का श्राराधिक होता है । यदि आप को इस विषय में शंका हो तो कृपा कर लिखावें, ताकि मैं आपकी शंका का ठोक समाधान करने का प्रयत्न करूँगा ।
वि० सं० १९७५
आपका दर्शनाभिलाषी 'ज्ञानसुन्दर'
श्रावण शुद्ध २
उपरोक्त प्रश्नों की एक नक्कल तो सुरत वाले श्रावक के द्वारा और दूसरी नकल भंडारीजी द्वारा सागरजी के पास पहुँचाई गई और उन प्रश्नों को सागरजी ने ध्यानपूर्वक पढ़ भी लिए, तथा उन प्रश्नों को पढ़ कर आप बड़े ही चक्र में पड़ गये; इतना ही क्यों पर आपका गर्व गलकर उसका पानी भी होने लगा । भंडारी जी ने कहा कि मुनिश्री ने इन प्रश्नों का उत्तर मंगवाया है; जब