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आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड
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निमित्त बन जाता है । सम्यदृष्टि मुमुक्षु आप अपने स्वार्थ के लिए ऐसे चमत्कारों का प्रयोग नहीं करते हैं, पर वे परोपकार के लिए निःस्वार्थ भाव से ही किया करते हैं । इसमें हमारे योगीराज महात्मा को भी हम स्थान दे सकते हैं ।
५१ प्रोसियां तीर्थ पर मुनियों का समागम
मुनिश्री के प्रयत्न से ओसियाँ के बोर्डिङ्ग का काम बढ़ता ही गया, समचार पत्रों के लेखों और इश्तिहारों से चारों ओर ख़बर पहुँच गई कि ओसवालों की उत्पत्ति के स्थान ओसियाँ में एक विद्यालय स्थापित हो गया है। पढ़ाई अच्छी है तथा लड़कों की अच्छी हिफाजत की जाती है, इत्यादि । विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होती गई, अब तो एक मास्टर की आवश्यकता और होने लगी । श्रतएव उस रिक्त स्थान को अधिष्ठायक ने एक जैन युवक काठियावाड़ी, 'जिसका नाम दीपचन्द भाई था, से पूर्ण किया । दीपचन्द भाई लिखा पढ़ा तो मामूली था, न जानता था धार्मिक ज्ञान और न जानता था महाजनी हिसाब, केवल गुजराती मामूली पढ़ा हुआ था, किन्तु उसमें दो गुण असाधारण थे - ( १ ) सबके साथ मिलकर चलना, ( २ ) पुरुषार्थीपना | मुनीश्री के कहने से मुनिमजी ने दस रुपैये माहवार पर दीपचन्द को रख लिया । दीपचन्द बोर्डिंग के काम के समय तो वहाँ का काम करता था और शेष टाईम में मुनीश्री से धार्मिक अभ्यास, तथा रात्रि में मारवाड़ी महाजनी हिसाब श्रादि का अभ्यास किया करता था । मुनिश्री की आप पर पूर्ण कृपा थी जो कि वे अपना समय खर्च कर दीपचन्द को अभ्यास करवाया करते थे ।