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आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड
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कहना ही क्या था ? जोधपुर की जनता एक दम उलट पड़ी कि धर्मशाला खचाखच भरी जाने लगी । इधर अग्रसर लोगों ने चतुर्मास के लिए इतने आग्रह से विनती को कि मुनिश्री को श्रावकों के कथन को मान देकर उनकी विनती को स्वीकार करनी पड़ी ।
६६ संवत् १६७४ का चातुर्मास जोधपुर
जब मुनिश्री का चातुर्मास जोधपुर होना निश्चय हो गया तो जोधपुर के श्रीसंघ में हर्ष का कोड़े पार तक भी नहीं रहा, कारण एक तो आपका व्याख्यान ही प्रभावोत्पादक था दसरी आपकी भाषा मारवाड़ी थी कि मनुष्यों तो क्या पर औरतें और बाल बच्चे तक भी सुखपूर्वक समझ सकते थे । तीसरी खास बात यह थी कि आपके पास न पण्डित न लेखक न श्रादमी अर्थात् खर्चा का नाम तक भी नहीं था फिर क्यों न खुशी मनावें । गत वर्ष फलौदी में सूत्रों की वाचना होने से कई साध्यियों आपका चातुर्मास कहां होगा वे राह देख रही थी । जब फलौदी लोहावट में इस बात की खबर पहुँची कि मुनिश्री का चातुर्मास जोधपुर में होना निश्चित हो गया है तब वे बिना ही विनती जोधपुर आ कर चातुर्मास करने का निर्णय कर लिया। उनको उम्मेद थी कि यहां पर भी मुनिश्री के मुखार्विन्द से सूत्र सुनने का सुश्रवसर मिलेगा और बात भी यही बनी । आप पधारते ही महामङ्गलिक श्रीसुख विपाक सूत्र व्याख्यान में वंचना प्रारम्भ कर दिया । साथ में एक उपदेशिक ऐसी कथा छेड़ दी जिस में भी छंद कवित्त श्लोक और इस प्रकार के दृष्टान्त दिया करते थे कि धर्मशाला इतनी विशाल होने पर भी पीछे से आने वालों को बैठने के लिए स्थान