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रूपसुंदर की प्र० का परिचय
लिये प्रायश्चित बतला कर उसको पुनः पदवी देने को कहा है, किंतु वचनपतित के लिये जावत्जीव तक पदवी के लिये अयोग्य बतलाया है । मुझे दुःख के साथ अफ़सोस होता है कि आप जैसे आचार्य ने एक तुच्छ ममत्व के कारण अपने सत्यव्रत का खून कर इतने वर्षों की दीक्षा पर्याय का निलाम कर डाला । अतः ऐसे वचन पतितों के पास आने में मुझे लाभ भी क्या है ? दुसरे मुझे जो रास्ता मिला है उससे आपके पास किसी प्रकार की अधिकता भी नहीं है; मैंने जो आपसे ओसियां में अर्ज की थी वह यह थी कि मेरे शिष्य को मेरी आज्ञा के बिना दीक्षा न देवें, और वह बात आपने मंजूर भी कर ली थी; अतः आपने रूपसुन्दर को दीक्षा देकर तीसरे व्रत को भी भंग किया है, इत्यादि ।
श्रावकों ने मुनिश्री के कहने को नोट कर लिया ओर फलौदी जा कर सूरिजी को ज्यों के त्यों समाचार सुना दिए ।
इधर रूपसुंदरजी ने बड़ी दीक्षा के समय अपनी प्रकृति का परिचय दे ही दिया तब सूरिजी की आंखें खुलीं तथा श्रावकों ने भी कहा महाराज आपने इस बला को साथ में क्यों लिया है इस को तो ज्ञानसुंदरजी ने ही मुशकिल से निभाया था ।
सूरिजी ० - उदयविजय ! मेरी बड़ी भारी भूल हुई है कि अमूल्य रत्न को छोड कर कांच के टुकड़े को ले लिया है, इत्यादि पश्चाताप कर मुनिश्री के वचनों को बार २ याद करते ही रहे ।
आप मथा गया से विहार कर तीवरी हो कर मंडोर पधारे, जब यह खबर जोधपुर के श्रावकों को हुई तो वे मंडोर प्राये और आग्रह पूर्वक बिनती कर बड़े ही सम्मान व स्वागत के साथ जोधपुर ले गये । दूसरे ही दिन आप का व्याख्यान हुआ । फिर तो
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