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________________ आदर्श - ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४३६ कुछ दिन ओसियां ठहर कर बाद वहां से मथाणिये पधार गये । वहां जोधपुर के भंडारी मनमोहनचंदजी स्टेशन मास्टर थे । उन्होंने बहुत आग्रह कर अपने कमरे (क्वार्टर) में एक सप्ताह तक रखा । यद्यपि मथाये में सब स्थानकवासियों के ही घर थे तथापि उनको व्याख्यान का इतना प्रेम लगा कि वे स्टेशन पर आ कर व्याख्यान सुना करते थे, इतना ही क्यों पर वहाँ के जागीरदार वगैरह जैनेत्तर भी व्याख्यान में आते थे । कई लोगों ने मांस मदिरा के त्याग भी करा दिये, बाद आप तीवरी पधारे, वहां भी आपके तीन व्याख्यान पब्लिक हुए बाद वहां से पुनः मथाणीये पधार गये । जब मुनिश्री ने फलोदी के समाचार सुने कि आचार्य महाराज ने रूपसुन्दरजी को लाटी में ही दीक्षा देदी है, इस पर आपने यही विचार किया कि धन्य है गुरुदेव को कि उन्होंने मुझे ऐसे संवेगियों से बचा दिया । हा हा एक शिष्य के लिए सूरिजीने अपने वचन को असत्य कर, सत्यव्रत का निलाम कर डाला; धन्य है (!) ऐसे संवेगियों को । सूरिजी ने सुना कि ज्ञानसुंदरजी मथाणिया ठहरे हुए हैं । आपने फलोदी से दो श्रावकों को मुनिश्री के पास भेज कर कहलाया कि मैंने तुमको वचन दिया था कि फलोदी आ कर तुम्हारे से मिले बिना रूपसुन्दर को दीक्षा न दूंगा; पर कई साधुओं और रूप सुन्दर का आग्रह के कारण उसको दीक्षा तो मैंने लाटी में ही दे दी है, इसमें हमारी ग़लती तो अवश्य हुई है, किंतु भवितव्यता ऐसी ही थी, अब भी तुम आओ तो मैं तुमको दीक्षा में बड़ा रख सकता | अतः आप फलोदी अवश्य पधार जाना । जब फलौदी के श्रावकों द्वारा यह समाचार मिला तो उत्तर में मुनिश्री ने सूरिजी से कहलाया कि शास्त्रकारों ने शेष दोषों के
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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