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________________ आदर्श-5 -ज्ञान १२४ गयवर० - भाई हम दुनिया को तारने की कोशिश करते हैं; 0 यदि आपको हमें कपड़ा देने में पाप लगता हो, तो हम कपड़ा लेकर आपको डुबोना नहीं चाहते । तेरहपन्थी - हम तेरहपन्थी साधु के अतिरिक्त किसी को भी दान देने में पुण्य नहीं समझते । गयवर०- - तब तो लगना ही समझते हो न ? हमको कगड़ा देने में आपको पाप तेरहपन्थी - पुण्य होना तो मैं हर्गिज भी नहीं समझता हूँ गयवर० - हमको कपड़ा देने में पाप किस प्रकार होता है ? तेरहपन्थी - इतना तो में जानकार नहीं हूँ । गयवर० - तो फिर आप पाप किस प्रकार बतला सकते हो ? तेरहपन्थी - हमारे साधु कहते हैं। गयवर०- - बस आपके साधुओं के कहने पर ही यह मिथ्या हठ पकड़ रखा है। अच्छा हमको कपड़ा देने में पाप समझते हो तो अन्नल देने में भी पाप समझते होंगे ? तेरहपन्थी - हाँ । गयवर : -- - आप तेरह पन्थी साधु को अन्न, जल, वस्त्र देने में पुण्य मानते हो और हमको देने में पाप समझते हो, इसका क्या कारण है । तेरहपन्थी—हमारे साधु भगवान की श्राज्ञानुसार चलते हैं । - इसका क्या प्रमाण है ? भगवान ने तो दीक्षा गयवर० - लेने के पूर्व स्वयं वर्षो दान दिया है, और आप एक पंच - महाव्रतधारी को भी अन्न, जल, वस्त्र देने में पाप समझते हो ? जो लोग उस समय वहाँ उपस्थित थे, वे लोग समझ गये
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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