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२५–वि० संवत् १६६६ का चतुर्मास अजमेर में
डालचन्दजी स्वामी की आज्ञानुसार आप लालचन्दजी को साथ लेकर जैतारण, बीलाड़ा, सोजत होते हुये सारण सिरियारी की घाटी चढ़ कर मेवाड़ में गये और विहार करते हुये देवगढ़ में आये । वहां भी आपके कोई सार्वजनिक व्याख्यान हुये। एक दिन कई श्रावकों के साथ बाजार में थोड़ा सा कपड़ा याचने के लिये गये थे । एक तेरहपन्थी श्रावक की दुकान से केवल पाँच हाथ लट्ठा चोलपट्टा के लिये लेना था। उसने कपड़ा फाड़ कर देते समय धीरे से कहा 'बोसिरे-बोसिरें। हमारे चरित्रनायकजी ने इस ओर ध्यान रखा और कपड़ा हाथ में नहीं लिया। ___ गयवर०-क्यों भाई आपने कपड़ा देते समय क्या कहा था ?
तेरहपन्थी-कुछ नही हमतो गृहस्थ हैं । गयवर-तुम हमको कपड़ा देते हो, इसमें पुण्य होता है या पाप ?
तेरहपन्थी-हम तो गृहस्थ हैं, पुण्य का काम भी करते हैं, और पाप का भी करते हैं। ____ गयवर०-मैं यह नहीं पूछता हूँ कि तुम गृहस्थ क्या-क्या काम करते हो ? मैं तो सिर्फ, आप मुझे कपड़ा दे रहे थे, उसके लिये ही पुछता हूँ। (इतने में बहुत से जैन और जैनेतर लोग एकत्रित होगये ) तेरह पन्थी-आप तो कपड़ा लिरावें, मैं खुशी से देता हूँ।