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वि० सं० १९६९ का चातुर्मास अजमेर में
कि तेरहपन्थियों का मार्ग निर्दयता और शूमता का है । जो जैनसाधुओं को अन्न, जल देने में ही पाप समझते हैं तो दूसरों को तो देवेगे ही क्या ? हाय हाय शायद् ऐसे लोगों से ही पृथ्वी बोझों मरती हो।
मुनिश्री वहाँ क़रीब एक मास ठहर कर हमेशा सार्वजनिक व्याख्यान देते रहे । तेरहपन्थियो के साथ हमेशा चर्चा होती रही । फलस्वरूप १२ घर तेरहपन्थी श्रद्धा को छोड़ स्थानकवासी बन गये और शेष में से भी कई लोगों के दिल में यह शंका जरूर पड़ गई कि तेरहपन्थी मार्ग नया भीखमजी ने निकाला है, तथा जो उदारता स्थानकवासी धर्म में है वह तेरहपन्थी में नहीं है। __तेरह पन्थियों के साथ इस प्रकार चर्चा करने का हमारे चरित्रनायकजी का यह पहिला ही मौका था किन्तु इसमें विजय मिलने से आपका उत्साह बढ़ गया और देवगढ़, तारागढ़ वगैरह उधर के ग्रामों में विहार कर दया दान का खूब प्रचार किया और कई तेरहपन्थियों को सद्मार्ग पर भी लिया। इतना ही क्यों , किंतु एक वेरह पन्थी श्रावक फौजमलजी को तो आपने ऐसा उपदेश दिया कि उसने आपके सभीप स्थानकवासी दीक्षा स्वीकार करली, जिसको स्वामी लालचन्दजी का शिष्य बना कर साथ में ले लिया। वे अभी पाली में आये, तब मुनि श्री के दर्शनार्थ आये और आपका बड़ा भारी उपकार माना। ___आप मेवाड़ की भूमि पवित्र कर बला कुंकड़ा होते हुए वापिस ब्यावर पधारे, किन्तु उस बात का शल्य अापके हृदय में ज्यों का त्यों था, कि टब्बा मानना और टीका नहीं मानना ।