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आदर्श - ज्ञान
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श्रापका दम्पत्ति - जीवन इतना तो शान्तिमयं था कि लक्ष्मी भी वहां रहने की इच्छा रखती थी । में आपके एक पुत्र भी हुआ था, पर आयुष्य तत्काल ही शान्त होगया ।
वि० सं० १९९६ कम होने से वह
वि० सं० १९५८ का जिक्र है कि राजकुंवरी के लिए अपने पीहर सालावास से निमन्त्रण के लिए गाड़ी आई थी, पहिले भी दो तीन बार वे लोग प्राचुके थे, पर जाने का अवसर नहीं मिला इसका कारण दम्पत्ति प्रेम ही था कि वे अलग रहना नहीं चाहते थे, खैर । इस समय जाना जरूरी समझकर और बहुत श्राम होने से राजकुंवरी को सालावास जाने की इजाजत दे दी । राजकुंवरी के जाने को करीब एक मास भी सम्पूर्ण नहीं हुआ था कि हमारे चरित्र नायकजी की जंघा में फोड़ा की बीमारी हो गई । पहिले तो यह एक साधारण बीमारी जान पड़ती थी, पर बाद में तो उसने एक महा भयंकर रूप धारण कर लिया । बस, हमारे चरित्रनायकजी को संसार त्याग के लिए मानो उस बीमारी ने एक नोटिस का हो काम किया, जिसको आपने प्रारम्भ में हो पढ़ लिया है। जिसके पात्रः-
बीमार थे हमारे चरित्र नायक श्रीमान् गयवरचंदजी |
वृद्ध पुरुष थे मूताजी प्रतापमलजी जो आपकी दीक्षा में सहायक थे ।
ब्राह्मण थे, शिवदानजी जिन्होंने दवा की थी ।