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________________ सागरजी से वार्तालाप - ठीक ! सागरजी मौन खोल कर बोले तो सही। - मुनि०-~मैंने जो आपकी सेवा में प्रश्न-पत्र भेजा था, वह आपको मिल गया था या नहीं ? सागरजी०-प्रश्न-पत्र तो मुझे मिल गया था। मुनि-फिर उन प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं दिया ? सागरजी०-हमको इतना अवकाश कहाँ मिलता है कि इस . प्रकार प्रश्नों के उत्तर दिये जावें । मुनि०-आप क्या करते हैं जो कि जिज्ञासुओं के प्रश्नों का उत्तर देने में आपको अवकाश नहीं मिलता ? सागरजी०-हमको शासन के कई कार्य करने पड़ते हैं। मुनि-क्या प्रश्नों का उत्तर देना शासन का कार्य नहीं है ? सागरजी०-ऐसे कार्यको हमशासन का कार्य नहीं समझते। मुनि:-तब आप दूसरे सच्चे मनुष्यों को झूठे बतलाना ही शासन का कार्य समझते हो न ? ... सागरजी०-फंठे को पूँठा बतलाना, यह भी शासन का कार्य ही है। मुनि-फिर दूंठा सिद्ध करने में इतनी कमजोरी क्यों ? तथा ऐसी कमजोरी आप जैसे विद्वानों को शोभा भी नहीं देती है। सागरजी०-इसमें आपने मेरी क्या कमजोरी देखी है ? मुनि-प्रश्नों के उत्तर नहीं देना, यही कमजोरी है । सागरजो०-जोश में श्राका अत्यन्त गर्म हो छोटे से नेत्रों कोरक्त वर्ण कर जोर से बोल उठे, तुम ढूँढ़िया हो, तुमको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। मुनि०-ढुढ़ियों ने ही तो आप संवेगियों का उद्धार किया
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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