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जावद में गेनमलजी चौधरीकी नेक सलाह
का भावार्थ यह था कि आज कल के साधु केवल नाम मात्र के साधु हैं, यदि संयम - लेना तो पूर्णतया पालन करना चाहिए, वरना श्रावकपन में रह कर श्रावक के ब्रतों की ही आराधना करना अच्छा है। __पूज्य हुक्मीचन्दजी महाराज कोटा की सम्प्रदाय को छोड़ कर इस प्रदेश में आये हुए थे। उस समय यहां पोतीयाबन्ध श्रावकों का ही साम्राज्य था और उनका पाट स्थान जावद था। वे लोग इसकाल में किसी को पांच महाव्रत धारी साधु होना मानते ही नहीं थे, उसी का नमूना हमारे केसरीमलजी सुराणा रामपुरा में रह गये थे । खैर केसरीमलजी की श्रद्धा कैसी ही हो, किन्तु उनका श्रावकाचार अच्छा था, और उन में दूसरों को ज्ञान पढ़ाने की उदारता अवश्य थी।
रामपुरा से विहार कर आप जावद पधारे। वहां भी छोटे प्यारचन्दजी महाराज विराजते थे। आप अलग एक कोठरी में ठहर गये । स्वामीजी ने भी आप को ललचाने की बहुत कुछ कोशिश की और कहा कि गर्मी की मौसिम आगई है ज्यादा नहीं तो यह चतुर्मास श्राप हमारे पास करलो । इत्यादि। __जावद यों तो स्थानकवासियों का एक केन्द्र था। बहुत से अच्छे अच्छे श्रद्धासम्पन्न और धर्मप्रिय श्रावक थे। आप पहले .जावद में ठहरे हुए भी थे, एवं सब लोग जानते थे, अतएव
आपने एक दिन वहां व्याख्यान भी दिया, जिस से सब का चित्त प्रसन्न हुआ। किन्तु आपका अकेले रहना सब के दिल में खटकता था।
जावद में गेनमलजी चौधरी एक अच्छे मान्यवर और