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आदर्श-ज्ञान
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जीवियस्स परिवंदण मारणेणं पूयणाए जातिमरणं मोयणाए दुक्ख पडिघायऊ - से सयमेव वाउ सत्थं समारभति अन्नेहिं वा वाउ सत्थं समारभविइ अन्ने वा वाउ सत्थ समारभते समणु जाणति । तं से अहियाए, तं से बोदिए ( आचारांग सूत्र प्रथम श्रतस्कन्ध, प्रथमोदेशा )
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भावार्थ - 'तिवारे निश्चय भगवान ने प्रज्ञा प्रवेदी यानि भगवान ने निश्चय करके कहा है कि इस प्रकार अपने जीतव अर्थात आजीविका चलाने के लिये, परिवंदन के लिये, मान के लिये, अपनी पूजा के लिये, जन्म मरण मिटाने के लिये, आया हुआ दुख को मिटाने के लिये स्वयं वायु काय के जीवों की हिंसा करे दूसरों से वायुकाय की हिंसा करावे, दूसरे कोई वायुकाय की हिंसा करे उसको अच्छा समझे, उसको भवान्तर में हित और अवधि का कारण होगा ।
यहाँ तो छ कारणों में से किसी भी कारण द्वारा छ काया से किसी भी जीव की हिंसा करने से हिंसा करने वाले को अहित और अबोध ( मिथ्यात्व ) का कारण बतलाया है, तथा पूर्वोक्त कारण आप लोगों के लिए हमेशा ही बनते हैं और उसमें ६ काया के जीवों से कई काया के जीवों की हिंसा भी होती है । फिर आपकी मान्यता से तो आपके हित और अबोध का कारण हमेशा के लिए बना हुआ ही रहता है ।
सेठजी - नहीं महाराज! पांच कारण वालों को हित होता है और जन्म मरण मिटाने के कारण हिंसा करने वालों को अबोध का कारण होता है ।