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सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में लेकर व्याख्यान के पाटे पर जा बैठे। परिषद् तो पहिले से ही खचाखच भर गई थी। ताराचन्दजी ने, मुनिश्री से पूछा कि क्या व्याख्यान श्राप बांचेंगे ? उन्होंने कहा 'हां, पूज्यजी महाराज ने मेरे लिए ही आज्ञा दी है।'
'अच्छा, कौनसा सूत्र वांचोगे ?'
'दशवैकालिक सूत्र का छटा अध्ययन ' । बस ताराचन्दजी भी दशवकालिक सूत्र के कागज ले आये, और छठा अध्ययन निकालकर पन्ने हाथ में लेलिये। ___ हमारे चरित्र नायकजी ने मंगलाचरण के पश्चात् सूत्र शुरु किया
नाण दसण सम्पन्न, संजमेण तवणय ।
गणिमागम संपन्नं, उज्जाणंभि समोसट्टे ।। इस गाथ का पहिले तो आपने संक्षिप्त से शब्दार्थ किया, बाद में विस्तार पूर्वक अर्थ करते हुए नाण शब्द का अर्थ में श्री नन्दी सूत्र से पाँच ज्ञान का विस्तार किया तथा दर्शन शब्द का अर्थ उत्तराध्ययन के अठावीसवे मोक्षमार्ग अध्ययन से विशेष अर्थ किया, चारित्र शब्द का भगवतीजी सूत्र से इस प्रकार अर्थ किया कि जिसमें डेढ़ घंटे का समय लग गया, बाद में एक दो उपदेशपर्ण पद की दाल, राग रागनी से कहकर तथा एक दृष्टान्त देकर परिषद् के मन को अच्छी तरह से रंजन कर दिया । व्याख्यान समाप्त होने पर सबके मुँह से आपकी प्रशसा होने लगी, कि दीक्षा को दो वर्ष भी नहीं हुआ, और आपने ज्ञान का ख़ब ही अभ्यास करलिया, इत्यादि । पर जो श्रावक हाथ में पन्ने लेकर