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आदर्श-ज्ञान
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करदिया, और चौबिहार तीन उपवास कर मौन कर ली। गुरू कृपा से विपत्ति चली गई, और आपने अपने हाथों से लाकर पारण किया ।
कालु में इसवर्ष एक दिगम्बर भट्टारकजी का भी चतुर्मास था । कालु में सरावगियों के घर ज्यादा हैं और वे सब स्थानक - वासी हैं । दिगम्बर भट्टारकजी ने पहिले तो मुनिश्री से अच्छा मेल रखा पर बाद में जब उन्होंने सराबगियों को मुँहपत्ति छुड़ाने का, मूर्तिपूजा करने का या हमेशा मन्दिरजी के दर्शन करने का आग्रह किया, तो मुनिश्री ने मुँहपत्ति बान्धने का तथा मन्दिर मूर्ति नहीं मानने का जोरों से उपदेश दिया । इस पर दिगम्बर भट्टारक चिड़ गये और कहा कि तुम्हारे साधुओं से कह दो कि हमारे से शास्त्रार्थ करें ।
लोगों ने जाकर केसरीमलजी साधु को कहा, पर वे तो शास्त्रार्थ करने से इन्कार होगये । आखिर हमारे चरित्रनायकजी ने डंके की चोट शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर दिगम्बर भट्टारकजी को कहला दिया कि पधारिए आप मैदान में, हम शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं। भट्टारकजी ने कहलाया कि हम हमारा मकान छोड़ कर अन्य स्थान तक नहीं आ सकते हैं, आपको शास्त्रार्थ करना हो तो हमारे मकान पर आ जावें । इस पर हमारे चरित्रनायकजी १०-१५ श्रावकों को लेकर भट्टारकजी के मकान पर गये, किन्तु भट्टारकजी लिखे पढ़े तो थे नहीं, श्रतएव पहले प्रश्न में ही चुप हो गये । प्रश्न था कि श्वेताम्बरों से दिगम्बर निकले या दिगम्बरों से श्वेताम्बर ?
जब भट्टारकजी अपनी प्राचीनता साबित नहीं कर सके, तब