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________________ आदर्श - ज्ञानद्वितीय खण्ड ३९२ गणेश० - आप मेरे को सत्य बात कहें उसके लिये तो पूज्यजी महाराज की मनाई नहीं होगा न १ प्यार० - इस विषय में मैं कुछ भी कहना नहीं चाहता हूँ । गणेश खैर, इस पुस्तक में दिये हुये ३२ सूत्रों के पाठ तो सूत्रों से मिलते हैं ना ? प्यार० - हाँ, यह बात तो मैं आपसे पहिले ही कह चुका हूँ । गणेशमलजी बन्दना कर वहाँ से आ गये और उनके मन में यह निश्चय अवश्य हो गया कि लोग कुछ भी कहें पर मुनिश्री का कहना तो सत्य ही है, जैसे श्राप संसार में सत्य कहने में निडर थे, उसी प्रकार यहाँ भी सत्य को डंके की चोट कह देते हैं, यही कारण है कि आप ढूँढ़िया पन्थ छोड़कर संवेगी साधु बन गये हैं। गणेश० - दूसरे दिन मुनिश्री से अर्ज की कि हम कल जावेंगे, हमारे लिये क्या आज्ञा है ? मुनि० - आप हमेशा वीतराग की मूर्ति के दर्शन व पूजा किया करना और यही श्रद्धा आम्नाय रखना, क्योंकि यदि किसी को भी सदरास्ता मिले तो वह अपने सज्जनों को सब से पहिले सद्ास्ता बतलावे, अतएव मुझे सद्मार्ग मिला है तो मेरा मुख्य कर्तव्य है कि मैं मेरे सज्जनों को उन्मार्ग जाते हुए को रोक कर सद्मार्ग का प्रदर्शन करवा दूँ । राज० - क्या आप हम लोगों को भी संवेगी बनाना चाहते हो । मुनि० - हाँ, इससे ही आप लोगों का कल्याण है । राज ०. - कल मैं प्रतिक्रमण करने को गई थी तो सबके हाथ में मुँहपत्ती थी, और सामने एक चार पैरों वाली लकड़ियों के ऊपर कपड़े में लपेट कर कुछ रखा हुआ था, तथा प्रतिक्रमण भी
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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