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________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३७० एक दिन सुलतानचंदजी, जोगराजजी, लीछमलाल जी,समरथमलजी, भतुजी वैद वगैरह मिलकर मुनिश्री के पास आये और अर्ज की कि यों तो हम लोगों को पूर्ण विश्वास है कि आप हमारे गुरु हैं। और उपकेशगच्छ का उद्धार के लिये कमर कसी है अतः लुप्त प्राय इस गच्छ का उद्धार करेंगेही पर हमारे दिल में यह उत्साह है कि हम श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ के मंदिर में अट्ठाई महोत्सव करावें आप उस समय उपकेशगच्छ का वासक्षेप लेकर सब गच्छवालों को उत्साही बनावें और जो लोग आशाओं का व्यर्थ ही पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं उनको भी संतोष हो जाय अतः हमारी अर्ज को स्वीकार कर हम लोगों पर उपकार करावें तथा रूपसुंदरजी की भी यही राय है। मुनिश्री समझ गये कि ये सब बातें रूपसुंदरजी से ही आई हुई हैं पर आपने श्रावकों को उत्तर दिया कि आप जानते हो कि मैंने रूपसुंदरजी को दीक्षा दी थी तब वासक्षेप के समय हमारा गच्छ उपकेशगच्छ ही कहा था फिर इस प्रकार वासक्षेप लेने का क्या अर्थ है ? इस पर भी आप लोगों का आग्रह हो तो मेरी ओर से किसी प्रकार का इन्कार नहीं है । इस पर श्रावकों ने बड़े हीखुश होकर कहा कि हम श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ के मंदिर में अठाई महो. त्सव कल से ही प्रारम्भ कर देंगे। मुनिश्री ने कहा ठीक, मैं कल व्याख्यान में ही इसका खुलासा कर दूंगा बाद आप अपनी भक्ति कर सकते हो ? __दूसरे ही दिन मुनिश्री ने व्याख्यान में एक ऐसा उदाहरण दिया कि एक बाप की संतान में एक भाई के बहुत से पुत्र हैं; तथा दूसरे भाई के खूब व्यवसाय होने पर भी उसका काम संभा
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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