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________________ ५६१ श्री सिद्धगिरि की यात्रा क्या प्रवृत्ति है ? इस प्रकार तीर्थ स्थान पर गृहस्थ भी हंसी-मजाक नहीं करते हैं, क्षमासागरजी ने कहा, मुनिजी आप जानते हो कि सब जीव कर्माधीन हैं, मैं बहुत कहता हूँ पर इन्हों की तो यह एक आदत सी हो गई है, मैं इस बात को अच्छी तरह से सम मता हूँ, पर क्या करूँ ? यहाँ यात्रा करने को आये अतः अब अलग रहना भी योग्य नहीं समझता हूँ, और यह बीकानेर की विधवा बाई है तथा यह हरिसागरजी के कहने से दो पैसा खर्च भी करती है, अतः इनका लिहाज भी नहीं तोड़ा जा सकता है । मुनि श्री ने इन बातों को सुन कर अत्यन्त खेद प्रकट किया कि पंच. महाव्रत और नौवाड़ ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने वालों का यह हाज यह तो समुद्र में लाय लगाने जैसा हाल है। क्षमासागरजी के साथ मुनिश्री ने सब से पहिले आदीश्वरजी की टुक विमलवसही में जाकर दर्शन किए तो आपके हर्ष का पार नहीं रहा-प्रतिक्षणा दे कर पांच स्थानों पर चैत्य वन्दन किया और बहुत देर तक वहाँ मूर्तिवत् होकर ध्यान लगा दिया। बाद में क्षमासागरजी ने श्रीरत्नप्रभसूरि के पादुके बतलाये और कहा कि इन महात्मा ने सब से पहिले ओसवंश की स्थापना की और इस पवित्र स्थान पर शरीर का त्याग कियाथा अतः मुनिश्री ने वहाँ पर भी बहुत देर तक गुरु भक्ति की। बाद में मोतीशाह की टुक में आये, वहाँ के दर्शन कर शेष दूकों के देव जुहार कर गोटी की पाग गये और वापिस विमलवसही वी यात्रा कर करीब चार बजे क्षमासागरजी, वल्लभसागरजी और हमारे मुनिश्री पहाड़ से नीचे उतरे वहाँ तक हरिसागर का मि. लाप तक भी नहीं हुआ, वह सखियों के साथ कहाँ घूमता रहा जिसका पता भी नहीं लगा।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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