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________________ २१५ पूज्यजी महाराज की चतुराई इच्छा हो, वहां जाना ही पड़ता है । अतः हमारे चरित्र नायक जी ने पूज्यजी की श्राज्ञा शिरोधार्य कर ली । पूज्यजी - सादड़ी प्यारचंदजी जाने वाले हैं, अतएव तुमको वहां जल्दी ही पहुँचना चाहिए। तुम प्रातः ही बिहार कर वहां चले जाओ । गयवर० - अभी तो बहुत दिन हैं, थोड़े दिन मैं आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ। अभी मुझे आपके द्वारा कई बातों की जानकारी भी करनी है । पूज्यजी — उन बातों को फिर कभी मिलें तब खुलासा कर लेना, तथा तुम मेरी आज्ञा का पालन करते हो, वह मेरी सेवा हो है । मेरा कहना है कि तुम कल ही विहार कर देना । 1 गयवर० - उदयपुर के श्रावक आये हैं, उनके साथ मिलकर भी तो समाधान करना है; अतएव ५-७ दिन तो मैं यहाँ ही ठहरूंगा । पूज्यजी - उदयपुर के श्रावकों के साथ जो समाधान करना है, वह मैं कर लूंगा; तुम तो सुबह हो बिहार कर देना । गयवरचंदजी समझ गये कि पूज्य जी महाराज का इरादा उदयपुर वाले श्रावकों से मुझे नहीं मिलने देने का ही है; क्योंकि यह काय पूज्यजी के लिये दो मुंह वाले सर्प के समान है। मेरे जाने के बाद मनमानी करने के लिये पूज्यजी स्वतंत्र हो जायेंगे। खैर, पूज्यजी महाराज का इतना कहना है, तो अपने को स्वीकार कर लेना चाहिये । अतः हमारे चरित्र नायकजी ने कह दिया कि आपकी आज्ञा स्वीकार है । पूज्यजी - गयवरचन्दजी तुम हमारे विनयशील साधु हो,
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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