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आदर्श - ज्ञान
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करीने - इत्यादि इस प्रकार मूळ सूत्र और टब्बार्थ कह कर सुना दिया ।
इसका भाव सौलह आना वही निकला जो मुनिश्री ने कहा था । यह सुनकर लोगों ने दाँतों तले उँगलियाँ दबाली तथा सोचने लगे कि श्रीजीवाभिगमसूत्र, ३२ सूत्रों में है और जब इसके मूलपाठ एवं टब्बार्थ में मूर्ति पूजा को हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण बतलाया है, तो फिर मूर्ति पूजा की निंदा एवं खण्डन करने हैं वे सूत्र भाषण कर एवं मिध्यात्व का प्रचार करके वाप सिर पर क्यों उठाते हैं ? किसी ने कहा कि नहींजी, इन पाठ का मतलब कुछ और ही होगा, इत्यादि स्वेच्छानुसार बातें करने लगे । बाद में मुनिश्री ने पुन व्याख्यान बांचना शुरू किया और उसी सूत्र से अपनि बात की और भी पुष्टी की अब तो विरोध में बोल ही कौन सकता था ? निश्चित समय होने पर व्याख्यान समाप्त हुआ और सभा विसर्जन हुई। शहर में जहाँ देखो वहाँ इस बात की ही चर्चा होने लगी ।
कई लोग मुनि श्री के पास खानगी तौर से श्राश्रा कर सूत्र के वे पृष्ठ देखने लगे और उन्होंने देखाकि सूत्र की प्रति पुराणी है, मूल पाठ और टब्बा में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि मूर्ति पूजा हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण है, जिसे साधारणतया लिखा, पढ़ा मनुष्य भी पढ कर समझ सकता है ।
कई लोग यह भी कहने लगे कि मन्दिर तो हजारों वर्षों के पुराणे है, और अपने धर्म को तो लगभग ४०० वर्ष ही हुए हैं, अतः मन्दिर तो पहिले ही थे ।
कुछ लोगोंने कहा कि सूत्रमें मूर्तिपूजा को हित, सुख, कल्याण