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गणेशमलजी का रतलाम आना
राज कुँवर :- किन्तु मैं क्या करूँ जब श्राप दीक्षा लेने को उद्यत हुए तो मैं संसार में रहकर भी क्या करूँगी ?
गणेशमलः -भावजजी । दीक्षा कोई बच्चों का खेल नहीं है, किन्तु यह एक हस्तियों का वजन उठाना है, आप जरा दिल में सोचो और समझो ।
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राजकुँवरः -- मैं कब दीक्षा लेने में खुश हूँ ? मैं तो पुकार २ कर कहती हूँ कि मुझे तो जबरदस्ती से दीक्षा दिलाई जाती है, आप जैसा मुझे कहते हो वैसे अपने भाई साहब से ही क्यों नहीं कहते ?
गणेशमलः–भाई साहब को तो मैं कहूँगा ही, पर पहिले आप तो यह वचन देदेवें कि मैं दीक्षा नहीं लूंगी, और बीसलपुर चली चलूंगी ।
राज कुँवर : - हाँ, मैं तो दीक्षा लेने में खुश नहीं हूँ, और आपके साथ बीसलपुर चलने को तैयार हूँ ।
गणेशमल—भावज का वचन लेकर भाई साहब के पास गये ओर नम्रता पूर्वक कहा कि आप यह क्या कर रहे हो, क्या पिताजी के वचनों को आप भूल गये हो, पिताजी हम सबको आपके आधार पर छोड़ गये हैं, यदि आप दीक्षा ले लेवेंगे तो हमारा क्या हाल होगा, हम किस के आधार पर हैं ?
गयवरचन्दः—जीव सब कर्माधीन हैं, मैं मेरा आत्मकल्याण करना चाहता हूँ व्यर्थ ही तुम लोग क्यों अन्तराय डालते हो ?
गणेशमलः -- भाई साहब ! अभी सब भाई छोटे हैं, तथा हाल ही में आपने मेरी सगाई सम्बन्ध किया है तो कृपाकर विवाह भी आप ही के हाथों से करदो, केवल दो मास का काम है ।
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