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________________ आदर्श - ज्ञान ४६ पूज्यजी के पास एक जोरावरचंदजी भंडारी कुचेरा वाले रहते थे, और वे आपके अभ्यान्तर के श्रावक, तथा दीक्षा के तो पक्के दलाल ही थे, पूज्यजी महाराज को मालूम हुआ कि आरजियों के - बात करने से सब मामला गड़बड़ सा होगया है, और गयवरचंदजी २-४ दिनों में ही दिसावर जाने वाले हैं, पूज्यजी ने भण्डारीजी को 'बुलाकर कहा कि गयवरचंद एक सुयोग्य और बुद्धिशाली होनहार रत्न है, ऐसा आदमी हाथों से चलाजाय, यह ठीक नहीं, इस लिए कोई भी उपाय करो कि इनकी दीक्षा जल्दी होजावे । भण्डारी जी गयवरचंदजी के पास आये और उनके मन को और भी स्थिर करने के अनेक उपाय करने लगे । राज कुँवर : - इधर ४ दिन बीत जाने पर राजकुँवर ने तकाजा किया कि बस ४ दिन होगये अब यहां से चलो । पतिः - राजकुँवर को उपदेश दिया कि संसार में कुछ भी सार नहीं है; आपको मालूम है कि मेरे चार खन्ध-बड़े व्रतों का भंग हुआ है जिससे अनंत काल संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा, अतएव मैं तो दीक्षा लूँगा, आप भी दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करें। यदि मैं दीक्षा लूं और आप संसार में रहेंगे तो प्रथम तो मेरे दीक्षा लेने के बाद आपको संसार में कोई भी सुख नहीं है; द्वितीय पराधीन रहना और तृतीय केवल भोजन वस्त्र के लिए जीवन व्यतीत करना । इससे तो दीक्षा लेकर श्रात्म कल्याण करना ही अच्छा है । राजकुँवर :- मैं यह नहीं जानती थी कि आप इस प्रकार मुझे धोखा देवें । पतिः - धोखा किस बात का ?
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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