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न कोई
तो जब
राय
रतलाम में दो मास की स्थिरता राजकुँवरः-धोखा नहीं तो और क्या है? पतिः-जरा विचारो वो सही संसार में क्या है?
राजकुँवर-मैं जानती हूँ कि आपके दीक्षा लेने के बाद मुझे संसार में किसी प्रकार का सुख एवं आगम नहीं है । यदि मैं दीक्षा ले भी लूं तो उसका कैसे पालन कर सकती हूँ क्योंकि अभी तो मैं समझती भी नहीं कि दीक्षा क्या वस्तु है? ____ पति-दीक्षा पालना कोई दुसाध्य नहीं, आपके सामने सैंकड़ों साध्वियें दीक्षा पालती हैं; यह तो जब तक दीक्षा नहीं ली जाय तब तक ही भय मालूम होता है; मेरी तो राय है कि आप दीक्षा लेकर अपना आत्म कल्याण करें। फिर तो श्राप को मरजी । मैंने तो दीक्षा लेने का पक्का निश्चय कर लिया है।
राजकुँवर :-तो क्या आप दीक्षा जरूर लेवेंगे ? पतिः-हाँ मैंने पूर्ण निश्चय कर लिया है। राजकुँवरः-रोती हुई गद गद शब्दों से कहने लगी कि खैर अब मैं क्या करूँ ? जो कुछ कर्म में लिखा है, सो ही होगा; मैं भी दीक्षा लेलुंगी किन्तु किसी अच्छी आरजिया के पास में दीक्षा दिलाना जिससे कि मेरा जीवन सुख शान्ति से व्यतीत हो सके।
पतिः-यह जिम्मेवारी मेरी है, आपको किसो प्रकार की तकलीफ न होगी।
बस, दम्पति दीक्षा के इच्छुक बन गये। जब यह बात पूज्यजी के कानों तक पहुँची तो आपके हर्ष का पार नहीं रहा और भंडारी जी से सलाह करली कि बड़ी सादड़ी में हीरालालजी पन्नालालजी और दो बाइयों की दीक्षा हाल ही मंगसर में होने वाली है, अतः