________________
आदर्श-ज्ञान
२४२
भी सब एकत्रित हो सामने आये । आपने नगर में प्रवेश किया तथा जहां तेरह पन्थी पूज्यजी ठहरे थे, उसके पास ही एक महेश्री की दुकान थी, उससे कहा कि भाई अगर तुम हमका ठहरने के लिये दुकान (केवल बाहर का भाग) देदो तों हम यहां ठहर जावें । महेश्वरी जान गया कि ये तेरह पन्थियों के कारण ही यहां ठहरते हैं, अतः उसने बाहर का भाग खाली कर दिया और मुनिजी वहां ठहर गये। रात्रि में प्रतिक्रमण के पश्चात् दोनों
र व्याख्यान शुरु हुआ, जिसमें तेरह पन्थियों के व्याख्यान में तो केवल तेरह पन्थी ही थे, पर मुनिश्री के व्याख्यान में क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या जैन और क्या जैनेत्तर सारा नगर ही उलट पड़ा था। मुनि श्री ने अपने व्याख्यान का विषय रक्खा था 'दया और दान' । तेरह पन्थियों का व्याख्यान तो केवल घण्टे
भर ही हुआ परन्तु मुनिश्री का व्याख्यान तो पूरे ढाई घण्टे तक बँचा । तेरह पन्थी लोग भी कान लगाकर सुनते रहे । वे आपस में कान फूँसी करने लगे कि इस झगड़ालूको किसने छेड़ा था अब इससे पीछा छुड़ाना बड़ा ही मुशकिल है, इत्यादि । जब मुनि श्री का व्याख्यान समाप्त हुआ, तो तीन तेरह पन्थी श्रावक ये और पूछने लगे कि आपका क्या इरादा है। क्या आप हमारे
पूज्यजी से शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ?
गयवर०- - बेशक! पर शर्त यह है कि चार मध्यस्थों के बीच शास्त्रार्थ किया जावे, और जिसका पक्ष हार जावे, वह जीतने वाले का धर्म स्वीकार कर लेवे ।
तेरह०-मध्यस्थों का क्या काम है ?