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आदर्श-ज्ञान
डाल कर थोड़े से बाल उखेड़े, किन्तु सब लोच नहीं कर सके; “इस हालत में नाई को बुलवा कर मुण्डन करवाया।
एक परमानन्द नामक अग्रवाल जवाहरलालजी के पास दीक्षा लेने को आया, किन्तु उसकी भी आज्ञा नहीं हुई थी। जवाहरलालजी महाराज ने उसको भी गयवरचन्दजी के साथ कर नीमच से तीन मील पर जंबुनिया ग्राम में, जहां स्वामी मोतीलालजी ठहरे हुए थे, भेज दिया, और चैत्र कृष्णा ६ को गयवरचन्द व परमानन्द दोनों ने स्वयमेव दीक्षा ले ली। बाद में गयवरचन्दजी ने तो कोटे का रास्ता पकड़ा और रामपुरा, भानपुर होते हुए चैत्र कृष्ण १३ को कोटे पहुँच गये, और उसी दिन पूज्यजी महाराज के पास आपने स्वयं बड़ी दीक्षा धारण करली और कह दिया कि मैं पूज्यजी का शिष्य हूँ। बाद में पूज्यजी के पास रहकर ज्ञानाभ्यास करने लगगये, किन्तु आहार-पानी अपना लाते करते थे। पूज्यजी महाराज की आप पर पूर्ण कृपा थी।
आपने उत्तराध्ययन सूत्र, नंदीसूत्र, सुखविपाकसूत्र और वीर स्तुति मूल पाठ कण्ठस्थ कर लिया तथा पहिले के मिला कर आज पर्यन्त करीब १५० थोकड़े भी कण्ठस्थ हो गये। आपको ज्ञान पढ़ने का जितना शौक था उतनी ही बुद्धि भी आपकी निर्मल थी। रात्रि में केवल ३ घंटे ही निद्रा लेते थे। आप हमेशा ८० या १०० श्लोक कण्ठस्थ कर लेते थे। उस समय पूज्यजी महाराज के पास जितने साधु थे, उनमें पहिले नंबर में शोभालालजी और दूसरे नंबर में आप ही थे।
आपका उस समय का त्याग बड़ा ही उच्चकोटि का था,उपाधि में सिर्फ एक चहर, एक चोलपट्टा, एक ढ़ाई हाथ का बिछौना