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स्वयमेव दीक्षा
और दो पात्र थे, फिर भी आप हमेशा एकान्तर तपस्या निरन्तर ही किया करते थे। ___ जब पूज्यजी महाराज का कोटे से ब्यावर की ओर बिहार हुआ तो आप भी साथ ही थे। पूज्यजी के साथमें जितने साधु थे, वे प्रायः सब अपठित ही थे। हमारे-चरित्र नायकजी की बढ़तो उनसे देखो नहीं गई । उन्होंने आपकी कई प्रकार की झूठी शिकायतें करके पूज्यजी के मनमें जमादी । पूज्यजी ने निर्णय किये बिना ही हमारे चरित्र-नायकजी से मन बैंच लिया। यहाँ तक कि जब ब्यावर तीन मुकाम दूर रहगया तो पूज्यजी ने फरमाया कि गयवरचंद, अभी तुम्हारी आज्ञा नहीं हुई है, इतने दिन तो हमने तुमको साथ रखलिया, किन्तु अब मारवाड़ आता है; तुम्हारे संसारिक कुटुम्ब भी बहुत हैं, और संभव है कि वे श्राकर हमको उपालंभ भी दें। अतएव तुम बीसलपुर जाकर आज्ञा पत्र लिखा लाओ, जिससे कि तुम्हारा आहार पानी शामिल हो सकें। नहीं तो, अब हम तुमको साथ में नहीं रखेंगे। पूज्यजी महाराज के ये वचन सुनकर तो आपके होश-हवास गुम हो गये तथा मनमें विचार किया कि जिन पूज्यजी महाराज के कहने से मैंने सब कुछ किया है, आज वही पूज्यजी मुझे पास में रखने से इन्कार कर रहे हैं; यह कैसी साधुता ।
गयवर०-पूज्यजी महाराज ! मैं अकेला मेरे संसारी ग्राम में नहीं जा सकता हूँ, कृपाकर एक दो साधुओं को मेरे साथ मेज दें तो मैं आज्ञा लाने के लिए जाने को तैयार हूँ !
पूज्यजी-मैं तो मेरे किसी साधु को नहीं भेज सकता हूँ,