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नागोर के प्रश्नोत्तर
पूज्यजी - मैंने टूक चतुर्मास किया था, तब सदेव मन्दिर के अन्दर से मकान पर आता जाता दर्शन किया करता था । सेठजी - जैन-मूर्ति के दर्शन करने से, मैं तो कोई भी हानि नहीं, पर लाभ ही समझता हूँ ।
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स्वामी गंगारामजी के शिष्य कनकमलजी अच्छे विद्वान व शास्त्रों के ज्ञाता थे । आपकी श्रद्धा मूर्ति पूजा की ओर झुकी हुई थी, फिर अमरचन्दजी और पूज्यजी महाराज की बातें सुन कर और भी दृढ़ हो गई । अतएव आप बोल उठे कि जब मूर्ति से लाभ हैं तो फिर इसका खण्डन क्यों किया जाता है ? सेठजी ने कहा कि जो मूर्ति का खण्डन करता है वह मेरे खयाल से जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ है और इस प्रकार उत्सूत्र की प्ररूपना कर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बन्धन करता है ।
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इस पर एक साधु ने कहा - तो क्या पत्थर की मूर्ति को हम भगवान् मान लें ?
अमर० - पत्थर की मूर्ति को भगवान् नहीं, किन्तु भगवान् की स्थापना माननी चाहिए ।
तब मांगीलाल नामक साधु बोला खैर, स्थापना मानल तो क्या उसकी वन्दन पूजन की जा सकती है ?
अमर० - जिसका भाव निक्षेप वन्दनीय है, उसके चारों . निक्षेप को शास्त्रों में वन्दनीय कहा है । अतः मूर्ति को निमित कारण समझ कर उसके द्वारा तीर्थङ्करों को वन्दन पूजन करने में कोई दोष नही है किन्तु लाभ ही है, कारण बन्दन पूजन करने वाला वीतराग देव को ही वन्दन पूजन करता है यदि जिसका भाव निक्षेप पज्यनीय है उसका स्थापना