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________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २८६ मुनि-"यदि आपकी कृपा इसी प्रकार रही तो सब कुछ हो सकेगा और मैं इस बात का प्रयत्न करता रहूँगा।" एक दफे का जिक्र है जब आप स्थानकवासो में थे, तब आप एक दिन ब्यावर में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे। एक सज्जन ने आपको किताब पढ़ते हुए देख ताना देते हुए कहा कि आप दूसरों की रची हुई किताबें ही पढ़ा करेंगे या कभी आप भी कोई अच्छी किताब लिख कर दुनिया के हाथ में पढ़ने को देंगे ? यह ताना आपके कलेजे में सीधा कांटा सा जा चुभा, और आपने उसी समय से मूर्तिपूजा के विषय में एक किताब लिखना प्रारम्भ कर दिया । सम्पूर्ण होने पर उस किताब का नाम 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' रखा जो 'यथानाम तथागुण' अर्थात् यथार्थ ही था। उस समय पर वही हाथ से लिखी हुई पुस्तक आपने योगिराज महाराज की सेवा में लाकर भेंट की । योगिराज उस पुस्तक को पढ़ कर परमानन्द को प्राप्त हो गये विचार करने लगे कि यह पुस्तक ४ प्रश्नों पर प्रश्नोत्तर के ढंग पर बड़ी ही खूबी से लिखी गई है । फिर भी विशेषता यह है कि इसमें ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ स्थान २ पर बत्तीस सूत्रों के मूल पाठों के प्रमाण भी प्रचुरता से दिए गये हैं । यदि इसको मुद्रित करवा दी जाय । तो जनता को इसले बड़ा भारी लाभ होगा। यों तो मूर्तिपूजा के विषय में बड़े २ धुरंधर विद्वानों ने अनेक ग्रंथ रचे हैं, किन्तु बाल जीबों के लिए जितना उपकार मुनिजी की रची पुस्तक करेगी, उतना दुसरी नहीं कर सकती है। यागिराज ने मुनिजी की बहुत तारीफ की और आपके ज्ञानाभ्यास एवं युक्तिवाद की प्रशंसा करते हुए कहा कि "आपकी रची हुई
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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