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________________ ४०३ धर्मसुन्दर के लिबे ढूंढिया धर्मसुंदर ने ओघा, मुँहपत्ती 'रख दिया', 'रख दे काँवली' । वह भी रख दी । बाद एक फटी हुई चद्दर और पुराना चोलपट्टा पहिनने को रहा, तब कह दिया कि तुम दीक्षा के योग्य नहीं हो । जहाँ तुमको सुख हो वहाँ ही जगह देखो, तुम हमारे योग्य नहीं हो । ____धर्मसुंदर चल कर उस यति के पास गया कि जिसके साथ पहिले से बातचीत हुई थी। यति ने कहा, इस भांति क्यों आया, सब पुस्तकें उपाधि कहाँ हैं ? उत्तर दिया कि महाराज ने ले ली। यति ने कहा कि मैं जानता ही था कि ज्ञानसुंदरजी बड़े ही होशियार साधु हैं । खैर यतिजी धर्मसुंदर को ले कर ढढ़ियों के अग्रसरों के पास गये और कहा कि लो, धर्मसुंदर को ले आया हूँ । ढूंढ़ियों ने कहा, हम चाहते थे कि संवेगी-वेश-संयुक्त आवे पर इसके पास तो ओघा, मुंहपत्ती, कंबली तक भो नहीं है, इसको हम क्या करें ? बस हँढ़ियों की मन की मन में रह गई और मुनिश्री का डंका बज ही गया। ____ मागसर कृष्णा तृतीया के शुभ दिन मुनिश्री तथा रूपसुंदरजी ने फलौदी से जैसलमेर की ओर विहार कर दिया, अखेचंदजी वैद्य सपत्नीक और अन्य कई भाईव बाईयों वगैरह सेवामें थे। सातवें दिन जैसलमेर की यात्रा की । वहाँ के भव्य मंदिर जो शिल्प-कला के नमूने थे, तथा मनोहर मूर्तियों के दर्शन कर चित्त को बड़ा ही आनन्द हुआ, बाद मुनिश्री न वहाँ के श्रावकों से कहा कि हमें ज्ञानभंडार का दर्शन करना है। किंतु एक तो ज्ञानभंडार की कुजियें पृथक् २ व्यक्तियों के पास रहती थीं, दूसरे मुनिश्री के साथ ऐसा बाडम्बर भी नहीं था अतः आपको साधारण साधु ही समम लिया, यही कारण है कि ज्ञानभंडार के दर्शन नहीं हुए
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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