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आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
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' पीछे हम ध सुन्दर का हाल लिख चुके हैं कि वह साधु धर्मपालन करने में असमर्थ था, इधर फलौदी के दूँढ़ियों को, इस चातुर्मास में जबरदस्त पराजय होना पड़ा था, अतः वे लोग ऐसे समय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई मौका हाथ लगे तो संवेगियों से हम बदला लेवें। धर्मसुन्दर की हालत हूँ ढ़ियों को भी मालूम हो गई थी, उन्होंने एक यति को एक सौ रुपये का लोभ लालच देकर यह प्रयत्न किया कि जिस समय गयवर मुनि विहार कर बजार के मंदिर जावें, उस समय सह उपाधि धर्मसुन्दर को आप अपने उपाश्रय में बुला लेवें; फिर उसको पीली चद्दर और संवेगियों के वेष में मुँह पर मुँहपत्ती बाँध कर बज़ार में घुमा कर बदला लेवें; यति. ने लोभ के मारे इसको स्वीकार कर धर्मसुंदर से कई वार मिल कर सब बात तय कर ली। ____ मुनिश्री ने जब सराय से विहार कर कँवलागच्छ के उपा. श्रय में प्रतिक्रमण किया, बाद में यति ने आकर मकान के नीचे ज्योंही संकेत किया त्योंही धर्मसुंदर नीचे गया । बहुत देर होगई, सब श्रावक चले गये तो मुनिश्री ने रूपसुंदरजी से कहा कि धर्मसुंदर को नीचे गये बहुत देर हो गई है वह अभी तक क्यों नहीं आया है ? उत्तर दिया कि वह एक यति के साथ बातें कर रहा है । आपने कहा कि मकान का दरवाजा बंद कर लो; बस, मकान का दरवाजा बन्द कर लिया गया । थोड़ी देर के बाद यति के जाने पर धर्मसुंदर ने दो चार बार पुकार की कि दरवाजा खोलो, किंतु दरवाज़ा नहीं खोला गया, इस हालत में पास में कँवला. गच्छ का एक दूसरा उपाश्रय था वहाँ जा कर सो गया। प्रातःकाल धर्मसुंदर आया तो मुनिश्री ने कहा, 'रख दे ओघा, मुंहपत्ती'