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________________ আহা-মুনি पास ठहर गये। वहां सालावास से राजकुँवर तथा आपके कुटुम्ब वाले करीब २०-२५ लोग आये, और खूब गुस्से में आ कर कहने लगे कि आपको किसने आज्ञा दी, किसने दीक्षा दी,हम मुँहपत्ती तोड़ कर एवं हाथ पकड़ कर घर पर ले जावेंगे, इत्यादि खूब हो परिसह दिया; किन्तु आप तो मौन धारण कर बैठ गये। आखिर वे थक गये, उन्होंने आज्ञा की तो बात ही नहीं सुनी और कहा कि आपने हमको क्या सुख पहुँचाया है कि हम श्राप को आज्ञा देकर सुखी करें। संसार का मोहजाल और स्वार्थ का यह एक नमूना है । मुनिश्री ने कहा कि आप आज्ञा दें या न दे, मेरा जीवन तो इसी दीक्षा में नत्म होगा। ___जोधपुर से धनराजजी साधु के साथ आप तीबरी गये । वहां कर्मचन्दजी महाराज के दर्शन कर वापिस लौट कर ब्यावर आये, इन दिनों में सख्त गरमी पड़ने पर भी आप छट छट के पारणना करते थे। ब्यावर में मन्नालालजी महाराज बिराजते थे । मन्नालालजी और पूज्यजी महाराज के आपस में वैमनस्य था। उन्होने आपके सामने पूज्यजी की पट्टावलि पढ़नी शुरु की, जिसको सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ और घर छोड़ने का दुःख होने लगा। उन्होंने देखा कि साधुओं का यह तो साधारण स्व. भाव ही बन गया है कि दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना और जो आवे उसको अपना चेला बनाने की कोशिश करना, अस्तु। ___आपका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था और ब्यावर में पढ़ाई का संयोग भी अच्छा था, इसलिए श्राप मन्नालालजी महाराज के पास ठहर गये।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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